लुत्फ़-ए-दोज़ख भी लुत्फ़-ए-जन्नत भी
हाय किया चीज़ है मोहब्बत भी

इश्क से दूर भागने वालो
थी येही पहले अपनी आदत भी

जीने वाला बना ले जो चाहे
ज़िन्दगी खवाब है हकीकत भी

हाल-ए-दिल कह के कहा न गया
आ गई अपने सर यह तोहमत भी

नाज़-ए-अख्फे ग़म बजा लेकिन
तू ने देखि है अपनी सूरत भी?

उफ़ वो दौर-ए-निशात-ए-इश्क खुमार
लुत्फ़ देती थी जब मोसीबत भी..........
खुमार बाराबंकवी
www.kavyalok.com
Please visit, register, write poems and comments.


This entry was posted on 5:30 PM and is filed under . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

4 comments:

    संजय भास्‍कर said...

    सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

  1. ... on October 6, 2010 at 6:22 PM  
  2. संजय भास्‍कर said...

    शायराना अंदाज में लिखी दिलचस्प पोस्ट

  3. ... on October 6, 2010 at 6:24 PM  
  4. राजभाषा हिंदी said...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

  5. ... on October 6, 2010 at 7:58 PM  
  6. मनोज कुमार said...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

  7. ... on October 7, 2010 at 11:07 AM