हर-एक रूह की साँसों पे वज़न देख रहा हूँ
में हर-एक सख्स के हाथों में कफ़न देख रहा हूँ

ई खिरद-मंदों खुदा होने का दावा न करो
में तो इंसान में आदम को भी कम देख रहा हूँ

यह हवाओं में ज़हर और यह बीमार फिजा
काल को जो होना है अंजाम-ए-चमन देख रहा हूँ

यह खुदाओं के लिए क़त्ल-ए-खुद्दै चोर्हो
नस्ल-ए-आदम में तबाही का चलन देख रहा हूँ

रौशनी वालों अंधेरों में भी जीना सीखो
में आफताब के पैरों में थकन देख रहा हूँ


source: net

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1 comments:

    संजय भास्‍कर said...

    Beautiful as always.
    It is pleasure reading your poems.

  1. ... on October 2, 2010 at 4:17 AM